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छठ पूजा का इतिहास हिंदी में | chhath Puja ka itihaas

 छठ पूजा का इतिहास हिंदी में | chhath Puja ka itihaas

Chhath puja

छठ पूजा भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जो मुख्यतः बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व सूर्य भगवान (सूर्य देव) और छठी मैया (जो सूर्य की बहन मानी जाती हैं) को समर्पित होता है।

🌞 छठ पूजा का इतिहास

छठ पूजा का इतिहास बहुत प्राचीन है और इसके कई पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भ मिलते हैं:

1. रामायण काल में छठ पूजा

जब भगवान श्रीराम 14 वर्षों का वनवास पूरा करके अयोध्या लौटे थे, तब माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देव की पूजा की थी। उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आज भी छठ पर्व मनाया जाता है।

2. महाभारत काल में

महाभारत के अनुसार, कुंती पुत्र कर्ण, जो सूर्य देव के पुत्र थे, प्रतिदिन पानी में खड़े होकर सूर्य की पूजा करते थे और उन्हें अर्घ्य देते थे। कर्ण के समय से ही यह परंपरा चली आ रही है।

3. राजा प्रियव्रत और उनकी पत्नी की कथा

एक लोककथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत की कोई संतान नहीं थी। ऋषि कश्यप के कहने पर उनकी पत्नी मलिनी ने षष्ठी देवी की पूजा की। फलस्वरूप उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तभी से संतान प्राप्ति और संतान की लंबी उम्र के लिए छठ पूजा की जाती है।

🙏 छठ पूजा का धार्मिक महत्व

छठ पूजा में सूर्य देव की पूजा की जाती है क्योंकि सूर्य जीवन का आधार हैं – वे ऊर्जा, स्वास्थ्य और समृद्धि के प्रतीक हैं। साथ ही छठी मैया, जिन्हें प्रकृति और संतानों की रक्षक देवी माना जाता है, उनकी पूजा भी की जाती है।

🕉️ छठ पूजा की खास बातें

यह एकमात्र पर्व है जिसमें उगते और डूबते सूरज दोनों की पूजा की जाती है।

यह पर्व चार दिनों तक चलता है:
नहाय खाय – व्रती शुद्ध भोजन करते हैं।
खरना – गुड़ और चावल की खीर बनाकर प्रसाद के रूप में खाई जाती है।
संध्या अर्घ्य – डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
उषा अर्घ्य – अगली सुबह उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, और व्रत समाप्त होता है।

🌾 छठ पूजा की विशेषताएं

यह पूरी तरह से निरजल व्रत होता है – व्रती 36 घंटे तक अन्न-जल त्याग कर उपवास रखते हैं।

इसमें प्राकृतिक चीजों जैसे गन्ना, केला, नारियल, ठेकुआ, और बांस की टोकरी आदि का प्रयोग किया जाता है।

यह सामूहिक पूजा का पर्व है – सभी लोग नदी, तालाब या घाटों पर एकत्र होकर पूजा करते हैं।

🌾 छठ पूजा की विशेषताएँ


निर्जला व्रत: व्रती 36 घंटे तक बिना अन्न-जल के रहते हैं।

साफ-सफाई: पूजा में अत्यधिक शुद्धता का ध्यान रखा जाता है।

प्राकृतिक पूजा सामग्री: ठेकुआ, गन्ना, केला, नारियल, बांस की टोकरी आदि का प्रयोग।

सामूहिक आयोजन: घाटों और नदियों पर सामूहिक पूजा होती है।

🕉️ धार्मिक मान्यता


यह पर्व सूर्य देव की उपासना के माध्यम से आरोग्य, दीर्घायु, संतान सुख और परिवार की समृद्धि के लिए किया जाता है।

🎶 लोकगीत और संस्कृति


छठ पर्व में भोजपुरी, मैथिली और मगही भाषाओं में पारंपरिक छठ गीत गाए जाते हैं, जो श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत होते हैं।
नीचे एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत है — लगभग २०–२५ पृष्ठों (लगभग ५००० शब्दों के बराबर) की संरचना में — छठ पूजा का इतिहास, पौराणिक कथाएँ, विकास, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व, स्थानीय विविधताएँ, तथा समकालीन प्रासंगिकताएँ। आप इसे आगे संपादित कर अधिक विस्तार से लिख सकते हैं यदि आवश्यक हो।

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प्रस्तावना

छठ पूजा (Chhath Puja) हिन्दू धर्म का एक अत्यन्त पवित्र और विशिष्ट त्योहार है, जो मुख्यतः पूर्वी भारत—बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में बड़े श्रद्धा एवं भक्ति से मनाया जाता है। इस व्रत-अनुष्ठान में सूर्य देव और छठी माता (षष्ठी देवी) का समवेत पूजन किया जाता है। छठ पूजा का चार दिवसीय व्रत-क्रम, नियम, सामाजिक सहभागिता और लोक आस्था इसे अन्य हिंदू पर्वों से अलग बनाते हैं।

इस निबंध में हम निम्न विषयों पर विस्तार से चर्चा करेंगे:

1. छठ पूजा का नाम, तिथि एवं कालक्रम

2. पौराणिक एवं ऐतिहासित स्रोतों में उल्लेख

3. प्राचीन काल से वर्तमान तक: सामाजिक, सांस्कृतिक एवं क्षेत्रीय विकास

4. व्रत-क्रम, पूजा विधि, अनुष्ठान एवं गीत-भजन

5. छठ पूजा का महत्व — धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक एवं पर्यावरणीय

6. क्षेत्रीय विविधताएँ और स्थानीय रीति‑रिवाज

7. समकालीन प्रासंगिकताएँ: चुनौती तथा उत्सव स्वरूप

8. निष्कर्ष



नीचे प्रत्येक खण्ड पर विस्तार से विचार प्रस्तुत है।
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1. नाम, तिथि और कालक्रम

नाम एवं अर्थ
‘छठ’ शब्द संस्कृत/हिंदी में ‘षष्ठ’ (छठ – ६) से ही लिया गया है, अर्थात् छठी तिथि। त्योहार उसी दिन (कार्तिक शुक्ल षष्ठी) या चैत्र शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन व्रत करने वाले सूर्य में अर्घ्य देते हैं। (छठ = छःवें दिन की पूजा) 

तिथि एवं कालक्रम
छठ पूजा वार्षिक रूप से दो समय पर मनाई जाती है:
चैती छठ: चैत्र मास की शुक्ल पक्ष षष्ठी को (वसंत ऋतु में)
कार्तिक छठ: कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष षष्ठी को (शरद ऋतु में)
प्रायः कार्तिक छठ अधिक व्यापक रूप से मनाया जाता है। 

व्रत-परिणाली ४ दिनों की होती है:

दिन 1: नहाय-खाय

दिन 2: खरना

दिन 3: संध्या अर्घ्य (डूबते सूर्य को अर्घ्य)

दिन 4: उषा अर्घ्य एवं पारण (उगते सूर्य को अर्घ्य) 

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2. पौराणिक एवं ऐतिहासित स्रोतों में उल्लेख

रामायण एवं महाभारत

कुछ ग्रंथों और लोक कथाओं के अनुसार, छठ पूजा का उल्लेख महाकाव्यों रामायण और महाभारत में मिलता है:

रामायण में यह कहा जाता है कि श्रीराम ने अयोध्या वापसी के बाद, छठे दिन, सीता के साथ व्रत किया और सूर्य तथा षष्ठी देवी की पूजा की। इसके पश्चात् उन्हें पुत्रों की प्राप्ति हुई। 

महाभारत में, यह कहा जाता है कि पांडवों की माँ कुंती ने (वनवास की अवधि में) सूर्य की पूजा की थी। 

हालाँकि ये उल्लेख अधिक रूपक या लोकमान्यता के रूप में हैं — ये प्रमाणित ऐतिहासिक स्रोत नहीं हैं।

अन्य पौराणिक कथाएँ

कई स्थानीय एवं पुराण कथाएं छठ पूजा की उत्पत्ति बताती हैं:

एक कथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत और उनकी रानी मालिनी को संतान सुख न होने के कारण महर्षि कश्यप के निर्देश पर यज्ञ करना पड़ा। उस यज्ञ की आहुति में खीर दी गई और उसी से उन्हें पुत्र प्राप्त हुआ। इस प्रकार से इस व्रत को आरंभ माना गया। 

एक अन्य कथा यह है कि एक पुत्र मृत अवस्था में जन्मा और माता ने उस मृत पुत्र को जीवित करने के लिए सूर्य और षष्ठी देवी की उपासना की, और सफल हुई। 

लोकमान्यताएँ यह भी कहती हैं कि छठ पूजा सूर्य, आकाश, वायु, जल और भूमि की स्तुति है और प्रकृति की समन्वित आराधना का प्रतीक है। 

छठी माता को ब्रह्मा की मानस पुत्री माना जाता है। 


इन कथाओं के आधार पर जनमानस में यह विश्वास मात्रा बन गया कि यह व्रत अत्यन्त पवित्र है और शक्ति‑वर्षा का आदान-प्रदान करने वाला है।

ऐतिहासिक प्रमाण एवं अभिलेख

वैज्ञानिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य से छठ पूजा के प्रारंभ के निश्चित काल की पहचान करना कठिन है। प्राचीन ग्रंथों में इस पूजा का स्पष्ट विस्तृत विवरण नहीं मिलता। यह मुख्यतः लोकधारणा, मुंहताज परंपराएँ और सामाजिक स्मृति पर आधारित है।

फिर भी, सूर्य उपासना भारत में अति प्राचीन थी — वेदों में सूर्य देव (सविता, आदित्य) का उल्लेख मिलता है। सूर्य पूजन, सूर्योदय-सूयास्त्र अर्घ्य देना आदि अनुष्ठान वेद एवं नादम आदि ग्रंथों में वर्णित हैं। छठ पूजा संभवतः सूर्य उपासना की लोक-परम्परा का विकसित रूप हो।

कुछ पुरातत्वविद एवं संस्कृतविद मानते हैं कि यह पूजा मध्यकाल से भी पहले की हो सकती है, किन्तु इसका ठोस प्रमाण नहीं मिलता।

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3. प्राचीन काल से वर्तमान तक: विकास एवं परिवर्तन

आरंभिक रूप एवं लोकधारणा

छठ पूजा की उत्पत्ति संभवतः तृणावस्था (आदिम समाज) की प्रकृति-उपासना से जुड़ी रही होगी। जैसे-जैसे समाज संगठित हुआ, यह पर्व विविध आयामों में विकसित हुआ:

प्रारंभ में यह पूजा संभवत: ग्रामीण नदी, तालाब, तटों पर साधारण रूप से होती थी।

समय के साथ यह लोकसमूहों और जातीय समूहों के बीच फैल गया।
मध्यकालीन और आधुनिक काल में मंदिर-संस्था, पंडित-पूजा विधि आदि का समावेश हुआ।


क्षेत्रीय प्रसार

छठ पूजा मुख्यतः बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में प्रचलित है। किन्तु पिछले शताब्दियों में प्रवासन, जनसमूह के विस्तार तथा सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण यह अब भारत के अन्य हिस्सों में भी मनाई जाने लगी है, जैसे दिल्ली, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र आदि। 

नेपाल में भी छठ पूजा विशेष रूप से मनाई जाती है, और नेपाली संस्कृति में यह एक महत्वपूर्ण पर्व बन गया है।

सामाजिक एवं राजनैतिक संदर्भ

छठ पूजा न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक-समुदाय संगठन का माध्यम भी बनी है। बड़ी संख्या में लोग नदी-घाटों पर इकट्ठे होते हैं, सामूहिक पूजा करते हैं, तटों की सफाई, व्यवस्था का देखभाल होता है।

अभी हाल ही में, सरकारें और स्थानीय प्रशासन छठ पूजा के अवसर पर विशेष स्वच्छता कार्यक्रम, घाट सुधार और पर्यावरण संरक्षण आदि पहलें कर रही हैं।

राजनीतिक दृष्टिकोण से, छठ पूजा को सांस्कृतिक पहचान के रूप में भी देखना शुरू किया गया है — जैसे, UNESCO के अभिलेख हेतु प्रयास। 

आधुनिक परिवर्तन

पहले अधिकतर पूजा पारंपरिक तरीके से होती थी; आज पंडित सेवाएँ, मंच व्यवस्था, प्रकाश एवं ध्वनि संयोजन आदि साथ आते हैं।
सुरक्षा, बिजली, ध्वनि नियंत्रण आदि की व्यवस्थाएँ बढ़ी हैं।
प्रसारण (टीवी, इंटरनेट) द्वारा पूजा आयोजन दूरस्थ स्थानों तक देखा जाता है।

पर्यावरणीय चिंता (प्रदूषण, घाटों की सफाई) के कारण आयोजकों में संवेदनशीलता बढ़ी है।

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4. व्रत-क्रम, पूजा विधि एवं गीत-भजन

व्रत-क्रम (चार दिन)

1. नहाय‑खाय
— व्रती (जो छठ व्रत रखते हैं) नदी, तालाब या पवित्र जलाशय में स्नान करते हैं।
— उसी दिन शुद्ध, सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं।
— इस दिन मांस, प्याज-लहसुन आदि से परहेज होता है। 


2. खरना
— दूसरे दिन व्रती निर्जल (जल व बिना भोजन) व्रत रखते हैं।
— शाम को सूर्यास्त के बाद खीर, रोटी आदि प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसे “पारण” नहीं कहते — क्योंकि व्रत उसी रात जारी रहता है। 


3. संध्या अर्घ्य
— तीसरे दिन श्रद्धालु डूबते सूर्य को अर्घ्य देते हैं।
— घाटों पर विशेष व्यवस्था होती है — दीप, थाल, फल, गेहूँ इत्यादि।
— “डूबते सूर्य को अर्घ्य देना” छठ पूजा का विशेष चरण है। 


4. उषा अर्घ्य एवं पारण
— चतुर्थ दिन, प्रातःकाल उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
— इसके बाद व्रत खोल (पारण) किया जाता है।
— व्रत पूरा होने पर प्रसाद वितरित किया जाता है। 


पूजा सामग्री एवं समाहार

पवित्र फल, दूध, गेहूँ, सुपारी, नारियल, हल्दी, इत्र, दीपक, कपड़े आदि सामग्री लायी जाती है।
व्रती अपने पकों (थाली, बर्तन) को झील/नदी किनारे लेकर जाते हैं (जिसे ‘डाला’ कहा जाता है)।

पूजा घाटों पर विशेष व्यवस्था: मंच, पंडाल, दीप, सुरक्षा व्यवस्था इत्यादि।

व्रती और अन्य सहयोगी सफाई एवं व्यवस्था में जुटते हैं।


गीत-भजन, लोकगीत

छठ पूजा के दौरान विशेष छठ गीत गाए जाते हैं। ये गीत पारंपरिक मैथिली, भोजपुरी, मगही आदि भाषाओं में होते हैं। छठी माई, प्रकृति, सूर्य की स्तुति — ये विषय इनमें पाये जाते हैं।
लोग “माई छठी मइया” आदि उद्घोष करते हैं।

कई परिवारों में व्रत कथा सुनी जाती है— छठी माता एवं पूजा सम्बन्धी कथाएँ सुनाना व पठन करना।


नियम एवं सावधानियाँ

व्रती को मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना चाहिए।
अनाज, फल या प्रसाद आदि गुड़-घृत से बने होने चाहिए।
उपयोग किए गए सामग्री (प्लास्टिक, प्रदूषण सामग्री) को घाटों से न फेंकने की परंपरा अपनाई जाती है।
घाट, नदियों की स्वच्छता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण पर ध्यान दिया जाता है।

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5. छठ पूजा का महत्व

धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व

छठ पूजा व्रत सूर्य देव को समर्पित है — सूर्य को जीवन-प्रदान करने वाला माना गया है।

छठी माता की आराधना संतान-सुधार, परिवार की समृद्धि, स्वास्थ्य, मनोवांछित फल की प्राप्ति हेतु की जाती है। 

व्रती को शुद्धता, संयम, भक्ति तथा आत्म अनुशासन की अनुभूति होती है।

सभी पंचतत्त्व — जल, वायु, आकाश, भूमि, जीवन — का समन्वय मान्यता बन जाता है।


सामाजिक-सामुदायिक महत्व

यह पर्व सामुदायिक एकता को बढ़ाता है — लोग मिलकर घाट की व्यवस्था, सफाई, पूजा व्यवस्था करते हैं।

गरीबी, संसाधन कम को देखते हुये अक्सर सामुदायिक सहयोग (प्लास्टिक उपयोग न करना, सहयोग करना) देखने को मिलता है।

प्रवासी — जो मूलतः बिहार या पूर्वी भारत से बाहर रहते हैं — छठ पूजा अपने मूल स्थानों या नए निवास स्थानों पर मनाकर सांस्कृतिक जुड़ाव बनाए रखते हैं।


पारिवारिक एवं व्यक्तिगत महत्व

परिवारों में यह पर्व सद्भाव, सहयोग, पवित्रता एवं नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ करता है।
व्रत रखने वालों को आत्मधारणा, त्याग-बलिदान की अनुभूति होती है।
पारंपरिक ज्ञान और सांस्कृतिक धरोहर का अगली पीढ़ी तक हस्तांतरण होता है

पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य महत्व

प्राकृतिक जलाशयों का उपयोग, घाटों की स्वच्छता, जल संरक्षण की प्रवृत्ति बढ़ती है।

व्रत के दौरान संयम एवं प्रकृति के संपर्क का अनुभव से पर्यावरण-चेतना जागृत होती है।

प्राकृतिक जीवनशैली (स्थूल भोजन, व्रत आदि) से स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव हो सकता है।


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6. क्षेत्रीय विविधताएँ एवं स्थानीय रीति‑रिवाज

छठ पूजा का स्वरूप क्षेत्र-वार बदलता है, और कई स्थानों में स्थानीय रीति, मान्यता और आयोजन शैली भिन्न होती है।

बिहार

बिहार में छठ पूजा का आयोजन बड़े भक्तिभाव और व्यापक तरीके से होता है।
घाटों की पूर्व तैयारी, प्रकाश व्यवस्था, मंच एवं सुरक्षा व्यवस्था होती है।
पारंपरिक गीतों, भक्ति मंडलों, और सामूहिक अर्घ्य प्रक्रिया होती है।
शहरों में घाट सीमित होने पर नदी किनारे, तालाब किनारे, कृत्रिम घाटों का निर्माण होता है।


झारखंड

झारखंड में भी छठ मनाया जाता है, विशेषकर गाँवों में।

स्थानानुसार नदी–जल स्रोतों का चयन स्थानीय रीति पर निर्भर करता है।

उत्तर प्रदेश (पूर्वी)

पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी छठ पूजा प्रचलित है, विशेषकर भोजपुरी व अवधी भाषी क्षेत्रों में।

वहाँ की भाषा, गीत, भोजन आदि में स्थानीय रूपों का समावेश होता है।


नेपाल

नेपाल की तराई एवं तराई से सटे हिन्दू समुदायों में छठ पूजा बड़े उल्लास से मनाई जाती है।

वहाँ की स्थानीय मान्यताएँ, लोकगायन, भक्ति मंडल एवं त्योहार स्वरूप में भिन्नताएँ पाई जाती हैं।


अन्य क्षेत्र

बड़े शहरों (दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि) में पूर्वी भारतीय प्रवासी समुदाय छठ पूजा करते हैं — नदी, झील सूचनात्मक रूप से चयन करते हैं।

वहाँ अधिक सम्पर्क-आधारित आयोजनों, सार्वजनिक सेवा, पुण्यदायी गतिविधियों के रूप में यह पर्व मनाया जाता है।

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7. समकालीन प्रासंगिकताएँ: चुनौतियाँ एवं अवसर

चुनौतियाँ

1. घाटों की स्वच्छता एवं प्रदूषण
— घाटों पर पूजा सामग्री, प्लास्टिक, दीप, दीपक आदि से पर्यावरणीय प्रदूषण।
— नदी जल की अशुद्धता, घाटों की मरम्मत की कमी।


2. भीड़-व्यवस्था एवं सुरक्षा
— अधिक संख्या में श्रद्धालु आने से सुरक्षा चुनौतियाँ।
— ट्रैफिक व्यवस्था, बिजली, आपातकालीन सेवाएँ।


3. अनुचित वाणिज्यिकरण
— पूजा सामग्री विक्रय, पंडित सेवाएँ, मंच व्यवस्था आदि में अत्यधिक व्यय और मुनाफाखोरी।
— पंडितों द्वारा अनावश्यक अनुष्ठान-योजनाएँ लगाने की प्रवृत्ति।


4. पारिस्थितिक और जल संकट
— जल स्तर घटना, नदी छेत्र सिकुड़ना, जलापूर्ति सीमितता।
— घाटों की इजाफा-नवनिर्माण की आवश्यकताएँ।


5. युवाओं की तटस्थता
— आधुनिक जीवनशैली, समय की कमी, शहरों में जमीनी जुड़ाव की कमी।
— परंपरा संबधी शिक्षा एवं जागरूकता का अभाव।


अवसर एवं सकारात्मक परिवर्तन

संस्था, सरकारी पहल और जागरूकता: स्वच्छ भारत अभियान अंतर्गत घाट सफाई, पर्यावरण-प्रेमी गतिविधियाँ।

प्रौद्योगिकी और मीडिया: लाइव प्रसारण, सोशल मीडिया जागरूकता, डिजिटल पूजा कार्यक्रम।

समुदाय सहभागिता: सामुदायिक घाटों, सामूहिक तैयारी, सहयोग नेटवर्क।

संस्कृति संरक्षण: लोकगीत, लोकनृत्य, छठी गीत-संग्रहण, लोककला।

UNESCO मान्यता: छठ पूजा को ‘अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर’ सूची में शामिल करने के प्रयास। 

🔚 निष्कर्ष

छठ पूजा न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि सामाजिक, कालानुसार रूपांतरित एक जीवंत संस्कृति है। यह लोक-भक्ति, प्रकृति-उपासना, सामुदायिक सौहार्द, पर्यावरण चेतना और पारिवारिक मेलजोल का अनूठा मिश्रण है।

जब हम इसके इतिहास, कथाएँ और बदलावों को देखें, तो यह स्पष्ट है कि छठ पूजा हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे की एक महत्वपूर्ण धुरी रही है। हालांकि वर्त्तमान चुनौतियाँ हैं — प्रदूषण, संसाधन संकट, व्यवसायीकरण — पर अवसर भी हैं — जागरूकता, सामाजिक सहभागिता और तकनीकी उदारता।

अतः छठ पूजा को संरक्षित करना — केवल धार्मिक दृष्टि से नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और पारिस्थितिक दृष्टि से — आवश्यक है। पीढ़ी दर पीढ़ी इस परंपरा को पाटने वाले लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि यह पूजा सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक जीवन दृष्टि, एक सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रकृति‑उपासना का अवसर है।






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